Wednesday 29 October 2014

तुम्हें माँ कहूँ या ना??

सुना है तुम कहती थी
तुमने प्यार किया
एक नारी अपूर्ण है
पुरूष बिना
इसलिए पूर्णता की प्राप्ति है
तुम्हारा प्रेम।
तुम कहती थी
कि तुम्हारी राखी ने
भाई को कोई
जख्म ना दिया
क्योंकि थामना था तुम्हें
हाथ जीवनसाथी का।
सुना है बाबू जी की इज्जत
दुश्मन बन बैठी थी
तुम्हारे प्यार की
क्योंकि दी जाती थी
हर बार उसकी दुहाई।
सुना है कि 
माँ के आसुओ से
गलने लगे थे
सपने तुम्हारे।
पर आज मैंने देखा है
नहीं जानती तुम
प्यार क्या होता है
तभी मैं
रोता, चिल्लाता रहा
कचरे के ढेर पर पड़ा
पर ना रूके तुम्हारे कदम
ना देखा तुमने मुझे
मुड़कर एक बार।
अब क्या रह गया था
जो लगने लगा तुम्हें
प्यार और ममता से प्यारा
और छोड़ चली तुम
सर्द रात मे
कुतो के बीच
लपेट कर कपडो मे माँ ।
दे ना जवाब
तुम्हें माँ कहूँ या ना??
     
                 एकला 

4 comments:

  1. Bahut gahre bhaaw hai aapki rachna ke...lajawaab ekdum!!

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  2. ....बहुत गहन भाव और उनकी प्रभावी अभिव्यक्ति...रचना अंतस को छू जाती है...

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  3. मार्मिक ... नम कर जाते शब्द ...

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  4. एक एक शब्द में सच्चाई झलक रही है आपकी रचना में ।
    और हुआ भी यह इस बाल दिवस पर।
    इस प्यार को क्या नाम दूँ ?
    माँ।।

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