Friday, 20 September 2013

आंधी

आंधी खड़ा रहूं मैं और महसूस करूं
google image 
तेरे हर कण के रौंदे जाने की व्यथा
नहीं मुझे कोई आश्चर्य
तेरे प्रचण्ड वेग का.
सत्य है यहीं दबा जो जितना गहरा
उठ खड़ा हुआ उतना ही विशाल बनकर
दरवाजे और खिड़कियाँ बंद कर
समझते जो महफूज खुद को
ढहने को करीब उनके महल अब
यही है दस्तक
हर जगह कोने में मिट्टी के छा जाने की.

              By 
-अनिल दायमा 'एकला'

Tuesday, 30 April 2013

सड़क

सड़क चलते रहे हैं सब
तुम्हारी छाती पर पैर रख कर
और जाते रहे हैं  पार
पाते रहे हैं मंजिल
पर तुमने कुछ न खाया, न चाहा।
लोग कहते हैं तुम चेतनाविहीन हो
तकती हो बस शून्य
परन्तु हर मौसम में मैंने देखा है
कभी ठिठुरते, कभी तपते, कभी बहते हुये तुम्हें।
हर ठोकर के बाद तुमने गले लगाया
ठोकर तुम भी खाती रही
पर कभी कोई 'सदा' तुमने नहीं दी
सोचा 'अपने' हैं।
सड़क वो आज इधर से नहीं गुजरेंगे
उन्होंने बदल ली है अपनी राह
पर तुम ना बदली
जहां थी जैसी थी, वहीँ हो वैसी ही हो
सड़क सच में तुम जिनका कोई नहीं उनकी माँ हो।