Wednesday, 29 October 2014

तुम्हें माँ कहूँ या ना??

सुना है तुम कहती थी
तुमने प्यार किया
एक नारी अपूर्ण है
पुरूष बिना
इसलिए पूर्णता की प्राप्ति है
तुम्हारा प्रेम।
तुम कहती थी
कि तुम्हारी राखी ने
भाई को कोई
जख्म ना दिया
क्योंकि थामना था तुम्हें
हाथ जीवनसाथी का।
सुना है बाबू जी की इज्जत
दुश्मन बन बैठी थी
तुम्हारे प्यार की
क्योंकि दी जाती थी
हर बार उसकी दुहाई।
सुना है कि 
माँ के आसुओ से
गलने लगे थे
सपने तुम्हारे।
पर आज मैंने देखा है
नहीं जानती तुम
प्यार क्या होता है
तभी मैं
रोता, चिल्लाता रहा
कचरे के ढेर पर पड़ा
पर ना रूके तुम्हारे कदम
ना देखा तुमने मुझे
मुड़कर एक बार।
अब क्या रह गया था
जो लगने लगा तुम्हें
प्यार और ममता से प्यारा
और छोड़ चली तुम
सर्द रात मे
कुतो के बीच
लपेट कर कपडो मे माँ ।
दे ना जवाब
तुम्हें माँ कहूँ या ना??
     
                 एकला 

Friday, 17 October 2014

छू लूँ बिटिया पाँव तेरे

                                                                      
तेरे माथे को चुम लूँ     
या छू लूँ बिटिया पाँव तेरे
जो हो चली
तुम जननी
सभ्यता की

तेरे न होने से

सिमट रहा मै
जिस भाव मे
अभागा हो चला
या पा लिया सब कुछ मैंने

खेली हो तुम

मेरी हँसी मेरी नजर मे
और  रह चली                

आँखो मे मेरी

नेत्रज्योति बन

अब क्या देख पाऊँगा

बिन तेरे कुछ भी मैं
पर अब ना झपकेगी
ये पलक कभी
कि बिटिया मेरी
बन चली स्रोत संयम का
और बह रही
प्रकाश बन।


हो ही लू सजदा

तेरे आगे
कि छू न सकी तुम्हें
प्रदुषित उद्घघोषणा कोई
तुम चलो बिटिया
पथप्रदर्शक बन मेरी
आ ही रहे है पापा
पीछे पीछे तुम्हारे।

'एकला'


Tuesday, 7 October 2014

मुफलिसी


क्या कहूँ, क्या बताऊँ 
कैसे करूँ दुख अभिव्यक्त
रूदन हर कोने जाने किसका
है हर वक्त

आसमाँ तले जिन्दगानियाँ यों पले
जैसे खुशियाँ
हो चुकी जब्त

साँसो की खातिर दौड़ते लोग 
थमी धड़कने
आहिस्ता आहिस्ता
बहता रक्त

मुफलिसी पलको तले आ पसरी
बन अंधेरा
होने लगी अब तो
नींद भी पस्त।

   "एकला"