मौसम का क्या उसे तो बदलना है
सूरज का क्या उसे तो ढलना है
ये हवा भी ठहर जानी है
फूलों को खिल कर बिखरना है
ये चाँदनियाँ भी तो छुप जानी है
टूटने हैं सितारे
कौन सागर ? जाने कैसे किनारे
उल्काएं भी तो खंडित हो जानी हैं
बादलों के आलिंगन से
अभिभूत नाग बिन आवाज
हर राग भी छलनी हो जानी है
इंतजार तो वक्त का पहलू है
पर मेरा प्यार नहीं
सब क्षणभंगुर
पर मेरा संसार नहीं
स्थिर-स्थिर-स्थिर
यही भाव बस मेरा
समय से दूर
जहां न प्रकाश न अंधेरा ।
"एकला"
सूरज का क्या उसे तो ढलना है

फूलों को खिल कर बिखरना है
ये चाँदनियाँ भी तो छुप जानी है
टूटने हैं सितारे
कौन सागर ? जाने कैसे किनारे
उल्काएं भी तो खंडित हो जानी हैं
बादलों के आलिंगन से
अभिभूत नाग बिन आवाज
हर राग भी छलनी हो जानी है
इंतजार तो वक्त का पहलू है
पर मेरा प्यार नहीं
सब क्षणभंगुर
पर मेरा संसार नहीं
स्थिर-स्थिर-स्थिर
यही भाव बस मेरा
समय से दूर
जहां न प्रकाश न अंधेरा ।
"एकला"
बहुत सुन्दर !
ReplyDeleteनेता और भ्रष्टाचार!
मन स्थिर हो जाना उस माया से एकाकार हो जाना है जो श्रृष्टि को चलाती है ...
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना ...
सुंदर भाव...उस स्थिर को पाकर ही मन टिकता है..
ReplyDeleteधन्यवाद अनिता मैडम.दिगंबर जी एवं कालीपद जी।
ReplyDeleteभावपूर्ण अभिव्यक्ति।
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ReplyDeleteइस रचना के लिए हमारा नमन स्वीकार करें
ReplyDeleteएक बार हमारे ब्लॉग पुरानीबस्ती पर भी आकर हमें कृतार्थ करें _/\_
http://puraneebastee.blogspot.in/2015/03/pedo-ki-jaat.html