Tuesday 30 April 2013

सड़क

सड़क चलते रहे हैं सब
तुम्हारी छाती पर पैर रख कर
और जाते रहे हैं  पार
पाते रहे हैं मंजिल
पर तुमने कुछ न खाया, न चाहा।
लोग कहते हैं तुम चेतनाविहीन हो
तकती हो बस शून्य
परन्तु हर मौसम में मैंने देखा है
कभी ठिठुरते, कभी तपते, कभी बहते हुये तुम्हें।
हर ठोकर के बाद तुमने गले लगाया
ठोकर तुम भी खाती रही
पर कभी कोई 'सदा' तुमने नहीं दी
सोचा 'अपने' हैं।
सड़क वो आज इधर से नहीं गुजरेंगे
उन्होंने बदल ली है अपनी राह
पर तुम ना बदली
जहां थी जैसी थी, वहीँ हो वैसी ही हो
सड़क सच में तुम जिनका कोई नहीं उनकी माँ हो।

7 comments:

  1. अच्छे भाव समेटे हैं.....
    लिखते रहिये.....
    ढेर सारी शुभकामनाएं...
    ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है.
    अनु

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  2. aapke blog se zudne ki koshis to ki pr net sath nhi de rha hai

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  3. संवेदनाओं से भरी हुई रचना...

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  4. बहुत सुन्दर और प्रभावपूर्ण रचना
    मन को छूती हुई
    उत्कृष्ट प्रस्तुति

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  5. Jiska koi nhi uska khuda nhi raasta hai kya gazaab ki prastuti ...lajawaab !!

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  6. एक राह ही तो है जो हर पल साथ होती है।चाहे जिस ओर जाओ,साथ मिलेगी।
    बेहद खूबसूरती से वर्णन किया है आपने अपने भावो को।

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