सड़क चलते रहे हैं सब
तुम्हारी छाती पर पैर रख कर
और जाते रहे हैं पार
पाते रहे हैं मंजिल
पर तुमने कुछ न खाया, न चाहा।
लोग कहते हैं तुम चेतनाविहीन हो
तकती हो बस शून्य
परन्तु हर मौसम में मैंने देखा है
कभी ठिठुरते, कभी तपते, कभी बहते हुये तुम्हें।
हर ठोकर के बाद तुमने गले लगाया
ठोकर तुम भी खाती रही
पर कभी कोई 'सदा' तुमने नहीं दी
सोचा 'अपने' हैं।
सड़क वो आज इधर से नहीं गुजरेंगे
उन्होंने बदल ली है अपनी राह
पर तुम ना बदली
जहां थी जैसी थी, वहीँ हो वैसी ही हो
सड़क सच में तुम जिनका कोई नहीं उनकी माँ हो।
तुम्हारी छाती पर पैर रख कर
और जाते रहे हैं पार
पाते रहे हैं मंजिल
पर तुमने कुछ न खाया, न चाहा।
लोग कहते हैं तुम चेतनाविहीन हो
तकती हो बस शून्य
परन्तु हर मौसम में मैंने देखा है
कभी ठिठुरते, कभी तपते, कभी बहते हुये तुम्हें।
हर ठोकर के बाद तुमने गले लगाया
ठोकर तुम भी खाती रही
पर कभी कोई 'सदा' तुमने नहीं दी
सोचा 'अपने' हैं।
सड़क वो आज इधर से नहीं गुजरेंगे
उन्होंने बदल ली है अपनी राह
पर तुम ना बदली
जहां थी जैसी थी, वहीँ हो वैसी ही हो
सड़क सच में तुम जिनका कोई नहीं उनकी माँ हो।
अच्छे भाव समेटे हैं.....
ReplyDeleteलिखते रहिये.....
ढेर सारी शुभकामनाएं...
ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है.
अनु
waaaaaaaaaaah bhot khub
ReplyDeleteaapke blog se zudne ki koshis to ki pr net sath nhi de rha hai
ReplyDeleteसंवेदनाओं से भरी हुई रचना...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और प्रभावपूर्ण रचना
ReplyDeleteमन को छूती हुई
उत्कृष्ट प्रस्तुति
Jiska koi nhi uska khuda nhi raasta hai kya gazaab ki prastuti ...lajawaab !!
ReplyDeleteएक राह ही तो है जो हर पल साथ होती है।चाहे जिस ओर जाओ,साथ मिलेगी।
ReplyDeleteबेहद खूबसूरती से वर्णन किया है आपने अपने भावो को।