या छू लूँ बिटिया पाँव तेरे
जो हो चली
तुम जननी
सभ्यता की
तेरे न होने से
सिमट रहा मै
जिस भाव मे
अभागा हो चला
या पा लिया सब कुछ मैंने
खेली हो तुम
मेरी हँसी मेरी नजर मे
और रह चली
आँखो मे मेरी
नेत्रज्योति बन
अब क्या देख पाऊँगा
बिन तेरे कुछ भी मैं
पर अब ना झपकेगी
ये पलक कभी
कि बिटिया मेरी
बन चली स्रोत संयम का
और बह रही
प्रकाश बन।
हो ही लू सजदा
तेरे आगे
कि छू न सकी तुम्हें
प्रदुषित उद्घघोषणा कोई
तुम चलो बिटिया
पथप्रदर्शक बन मेरी
आ ही रहे है पापा
पीछे पीछे तुम्हारे।
'एकला'
Saarthak va prabhaawi aabhivyati behad sunder
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteदिल को छूते हुए भाव ... सुन्दर रचना ...
ReplyDeleteदीपावली की हार्दिक बधाई ...
सुंदर भावों से सजी उत्तम रचना।
ReplyDeleteदिल को छूते हुए भाव
ReplyDeleteपिता द्वारा अपनी लाडली को स्वयं से रूक्सत करते वक्त अपने भावों को अभिव्यक्त करना ,जो अब तक अपने मन में संजोए हुए थे।
ReplyDeleteसब बयाँ कर दिया आपकी भावपूर्ण रचना ने।
बेहद खूबसूरत।